आईना – डॉ कंचन जैन “स्वर्णा”

अलीगढ़ :–


सुबहों,शाम बदल जाएंगें।

बीते बरसों के “नाम” बदल जाऐंगें ।

 यादों के कारवे - ए - अस्क बदल जाएंगे। 

 याद भी,

जो रखना चाहो तो।

 वक्त - ए- जज्बात , बदल जाऐंगें। 

 कोशिश भी बेमानी होगी।

कुछ मन्जिलें मुसाफिर बदल जाऐंगें।

 होगा  दुनिया  जहां- ए- नूर हर पल में ।

 बस कुछ वक्तं - ए - किरदार बदल जाएंगें।

 न समझाने की दरकार,

 न समझने की फरियाद ।

बस कुछ,

 खामोशियों से बरसो बदल जाएंगे ।

 न तलाश करना बीतें वक्त की।

क्योंकि “आइने” टूटने की कगार पर हैं। 

 उसके बिखरे - टूटे हिस्सें,

कब तक हाथों में जख्मों के साथ रह पाऐंगें ।

 कभी तो वो भी हाथों से नीचे गिर जाएंगे ।

 सम्भाल कर रखना " आइने " को अपने , 

वरना अपने साथ,

न जाने कितनी यादें ले जाएंगे।

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