पढ़ें –स्वार्थ और कर्म, रचनाकार- डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

अलीगढ़ :–


 स्वार्थ की बस्ती में हर इंसान लाश हो गया,

स्वार्थ को हर जगह ढूंढता राहगीर हो गया ।

अंतरात्मा शून्य है,भावनाएं मौन हैं,

हर मोड़ पर नियत में खोट है।


हर पल लाभ-हानि तलाशती  हैं स्वार्थी नजरें,

स्वार्थ की चादर में लिपटा इंसान, स्वार्थ से मालामाल हो गया ।


समझता फिरता है खुद को बेहद हुनरमंद,

एक एक पल घटता  जीवन आज चंद दिन हो गया ।


"दुनिया" की माया नगरी में हर रोज बदलता  स्वार्थ का एक नया रंग,

बदलती उम्र में स्वार्थ का आईना  बदरंग हो गया ।


पूरी ताकत लगा दी स्वार्थ सिद्धि में,

पूरा जीवन गवा दिया स्वार्थ की रंगीनियों में।

स्वार्थ की गलियों में फिरता रहा ताउम्र,

और आज शून्य हो, अपने कर्मों पर, सब चालाकियां भूल गया।

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