भावनाओं की मिट्टी – डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

अलीगढ़ :–


परवाह सबको थी,

 अपने किरदार के बिखरने की।

मगर फिर भी ,

झुककर अपनेपन में निभाते रहे।

बिखरता रहा इल्म,

फिर भी  मुस्कुराहट से संभालते रहे।

हंसता रहा, हर मतलबपरस्त।

फिर भी 

कुछ कहे ,अनकहे सिलसिले निभाते रहे।

भावनाओं की चादर फटती रही,

 और हम नजरअंदाजी से सीते रहे।

वक्त की ऩजाकत और त़काजा,

 बरसों बदलता रहा।

और हम उस पर भावनाओं की मिट्टी डालते रहे।

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