कर्मों का चश्मा डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

अलीगढ़ :–

तुझे तेरे ही चश्मे से देख रहा हूं,

रोज एक नया

 तुझमें किरदार देख रहा हूं।

कर्मों की चादर में,

 रोज बुनते षड्यंत्र तूझे देख रहा हूं,

नए-नए रंग तेरे व्यवहार में देख रहा हूं।

फायदे के लिए इस्तेमाल करते तेरे शब्दों का,

 नजारा भी देख रहा हूं।

मैं पल-पल तेरे साथ  साए सा चलता हूं,

और तूझे  हर अच्छे बुरे में देख रहा हूं।

नियत बदल जाती है, तेरी।

लाभ-हानि देखकर,

मैं तुझे तेरे लाभ के लिए,

 कर्मों की श्रृंखला भुलाते देख रहा हूं।

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