ख्वाईशों के रंग – डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

अलीगढ़ :–


सादगी ही सराहनीय थी,

पता नहीं,

ये ख्वाहिशों के रंग,

 कहां से आ गए।

उम्र की खाली जेबों में,

तिजा़रतों के सिक्के कहां से आ गए।

अ़मीर बनकर, 

तू जब से चला है,

खो गया है,

 इल्म तेरा।

या शहर के 

किसी मोड़ पर।

तू जानबूझकर,

 छोड़ आया है।

ये होशियारी की तालीम,

 न जाने कहां से तू ले आया है।

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