कर्मों की नजर – डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

अलीगढ़ :–


जब संतुलित भावनाओं की कीर्ति,

 शून्य हो जाती है।

तब एक चक्रवर्ती भी ,

हारा नजर आता है।

सामने खड़ा परमात्मा भी,

विद्रोही नजर आता है।

गंगा का पवित्र जल भी,

विष नजर आता है।

द्वार पर खड़ी सफलता भी,

झूठी नजर आती है।

सुकून भी असुन्तुष्ट,

 नजर आता है।

खेलता है, जब 

कर्म अपनी बारी।

तो सारी सृष्टि,

कम नजर आती है।

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