मानवता हासिए पर – डॉ कंचन जैन "स्वर्णा"

अलीगढ़ :–


मानवता हासिए में आ गई है,

चिल्लाती है, चिखती है।

और फिर मुंह फेर सो जाती है।


देखती है, सुनती है।

और फिर मुंह फेर चली जाती है।


मानवता स्याही से भीगे कागज सी हो गई है,

लिखती है, पढती है।

और फिर भूल कर बढ़ जाती है।


एक व्यक्ति के भीतर मानवता हर रोज रंग बदलती है,

स्वार्थ की पोटली बांधती  है, छलती है।

और फिर एक नए रंग संग  चली जाती है ।

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